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Yoga In Bhagavad Gita

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Meaning of yoga

Yoga means ‘science of the relationship with the Supreme’. In Bhagavad-gita Lord Krishna explains the levels of advancement of yogis and finally concludes that the topmost yogi is he who is most intimately united with Him.

 

The Beginning of Yoga

yoga-sthah kuru karmani sangam tyaktva dhananjaya
siddhy-asiddhyoh samo bhütva samatvam yoga ucyate

Be steadfast in yoga, O Arjuna. Perform your duty and abandon all attachment to success or failure. Such evenness of mind is called yoga. (Bg 2.48)

Who is a Yogi?

anashritah karma-phalam karyam karma karoti yah
sa sannyasi ca yogi ca na niragnir na cakriyah

“One who is unattached to the fruits of his work and who works as he is obligated is in the renounced order of life, and he is the true mystic: not he who lights no fire and performs no work.” (Bg 6.1)

Advanced Yogi

yada hi nendriyartheshu na karmasv anushajjate
sarva-saìkalpa-sannyasi yogarudhhas tadocyate

A person is said to have attained to yoga when, having renounced all material desires, he neither acts for sense gratification nor engages in fruitive activities. (Bg 6.4)

 

jnana-vijnana-triptatma kutha-stho vijitendriyah
yukta ity ucyate yogi sama-loshörashma-kancanah

A person is said to be established in self-realization and is called a yogi [or mystic] when he is fully satisfied by virtue of acquired knowledge and realization. Such a person is situated in transcendence and is self-controlled. He sees everything-whether it be pebbles, stones or gold-as the same. (Bg 6.8)

Further Advanced Yogi

suhrin-mitrary-udasina-madhyastha-dveshya-bandhushu
sadhushv api ca papeshu sama-buddhir vishishyate

A person is said to be still further advanced when he regards all—the honest well-wisher, friends and enemies, the envious, the pious, the sinner and those who are indifferent and impartial-with an equal mind. (Bg 6.9)

The Highest Yogi

yoginam api sarvesham mad-gatenantar-atmana
shraddhavan bhajate yo mam sa me yuktatamo matah


And of all yogis, he who always abides in Me with great faith, worshiping Me in transcendental loving service, is most intimately united with Me in yoga and is the highest of all. (Bg 6.47)


भगवद्गीता में योग 

योग का अर्थ

योग का अर्थ है 'परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान।' भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण योग में उन्नति के अलग अलग चरण बताते हैं और अंत में निष्कर्ष देते हैं कि सर्वोच्च योगी वह है जो उनसे परम अंतरंग रूप में युक्त है।

 

योग का प्रारम्भ

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥

हे अर्जुन! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो | ऐसी समता योग कहलाती है | (भ.गी. 2.48)

 

योगी कौन है?

श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥

श्रीभगवान् ने कहा – जो पुरुष अपने कर्मफल के प्रति अनासक्त है और जो अपने कर्तव्य का पालन करता है, वही संन्यासी और असली योगी है | वह नहीं, जो न तो अग्नि जलाता है और न कर्म करता है | (भ.गी. 6.1)

 

उन्नत योगी

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥


जब कोई पुरुष समस्त भौतिक इच्छाओं का त्यागा करके न तो इन्द्रियतृप्ति के लिए कार्य करता है और न सकामकर्मों में प्रवृत्त होता है तो वह योगारूढ कहलाता है | (भ.गी. 6.4)

 

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥

वह व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त तथा योगी कहलाता है जो अपने अर्जित ज्ञान तथा अनुभूति से पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है | ऐसा व्यक्ति अध्यात्म को प्राप्त तथा जितेन्द्रिय कहलाता है | वह सभी वस्तुओं को – चाहे वे कंकड़ हों, पत्थर हों या कि सोना – एकसमान देखता है | (भ.गी. 6.8)

 

अधिक उन्नत योगी

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥

जब मनुष्य निष्कपट हितैषियों, प्रिय मित्रों, तटस्थों, मध्यस्थों, ईर्ष्यालुओं, शत्रुओं तथा मित्रों, पुण्यात्माओं एवं पापियों को समान भाव से देखता है, तो वह और भी उन्नत माना जाता है | (भ.गी. 6.9)

 

सर्वोच्च योगी

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥

और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, अपने अन्तःकरण में मेरे विषय में सोचता है और मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युक्त रहता है और सबों में सर्वोच्च है | यही मेरा मत है | (भ.गी. 6.47)

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